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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


घरजमाई मुंशी प्रेम चंद
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सारे धर ने खाया, पर हरिधन न उठा। सास ने मनाया, सालियों ने मनाया, ससुर ने मनाया, दोनो साले मनाकर हार गये। हरिधन न उठा, वहाँ द्वार पर एक टाट पड़ा था। उसे उठाकर सबसे अलग कुएँ पर ले गया और जगत पर बिछाकर पड़ा रहा।
रात भीग चुकी थी। अनन्त आकाश में उज्जवल तारे बालकों की भाँति क्रीड़ा कर रहे थे। कोई नाचता था, कोई उछलता था, कोई हँसता था, कोई आँखें मींचकर फिर खोल देता था। रह-रहकर कोई साहसी बालक सपाटा भरकर एक पल में उस विस्तृत क्षेत्र को पार कर लेता था और न जाने कहाँ छा जाता था। हरिधन को अपना बचपन याद आया, जब वह भी इसी तरह क्रीड़ा करता था। उसकी बाल-स्मृतियाँ उन्हीं चमकीले तारों की भाँति प्रज्वलित हो गयीं। वह अपना छोटा-सा घर, वह आम का बाग़, जहाँ वह केरियाँ चुना करता था; वह मैदान, जहाँ कबड्डी खेला करता था, सब उसका याद आने लगे। फिर अपनी स्नेहमयी माता की सदय मूर्ति उसके सामने खड़ी हो गयी। उन आँखों में कितनी करुणा थी, कितनी दया थी। उसे ऐसा जान पड़ा, मानो माता की आँखों में आँसू भरे, उसे छाती से लगा लेने के लिए हाथ फैलाए उसकी ओर चली आ रही हैं। वह उस मधुर भावना में अपने को भूल गया। ऐसा जान पड़ा, मानो माता ने उसे छाती से लगा लिया हैं और उसके सिर पर हाथ फेर रही हैं। वह रोने लगा, फूट-फूटकर रोने लगा। उसी आत्म-सम्मोहित दशा में उसके मुँह से यह शब्द निकले- अम्माँ, तुमने मुझे इतना भुला दिया। देखो, तुम्हारे प्यारे लाल की क्या दशा हो रही है? कोई उस पानी को भी नहीं पूछता। क्या जहाँ तुम हो, वहाँ मेरे लिए जगह नही हैं!
सहसा गुमानी ने आकर पुकारा- क्या सो गये तुम, ऐसी भी क्या राच्छसी नींद! चल कर खा क्यों नहीं लेते? कब तक कोई तुम्हारे लिए बैठा रहे।
हरिधन उस कल्पना जगत् से क्रूर प्रत्यक्ष में आ गया। वही कुएँ की जगत थी, वही फटा हुआ टाट और गुमानी सामने खड़ी कह रही थी- कब तक कोई तुम्हारे लिए बैठा रहे!
हरिधन उठ बैठा और मानो तलवार म्यान से निकालकर बोला- भला, तुम्हें मेरी सुध तो आयी! मैंने कह तो दिया था, मुझे भूख नही हैं।
गुमानी- तो कितने दिन तक न खाओगे?
'अब इस घर का पानी भी न पीऊँगा। तुझे मेरे साथ चलना है या नहीं?'
दृढ़ संकल्प से भरे हुए इन शब्दों को सुनकर गुमानी सहम उठी। बोली- कहाँ जा रहे हो?
हरिधन ने मानो नशे में कहा- तुझे इससे क्या मतलब? मेरे साथ चलेगी या नहीं? फिर पीछे से न कहना, मुझसे कहा नहीं।
गुमानी आपत्ति के भाव से बोली- तुम बताते क्यों नहीं, कहाँ जा रहे हो?
'तू मेरे साथ चलेगी या नहीं'
'जब तक बता न दोगे, मैं न जाऊँगी।'
'तो मालूम हो गया, तू नहीं जाना चाहती। मुझे इतना ही पूछना था, नही तो अब तक मैं आधी दूर निकल गया होता।'
यह कहकर उठा और अपने घर की ओर चला। गुमानी पुकारती रही- 'सुन लो, सुन लो' पर उसने फिरकर भी न देखा।

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